पढ़े दर्दनाक कहानी:खदानों में काम मांगनेवाली नाबालिग लड़कियों को बनाया जा रहा था हवस का शिकार….

 

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दो वक्त की रोटी के लिए चित्रकूट की खदानों में काम करने को मजबूर नाबालिग लड़कियों को यह रोजाना ही सुनना पड़ता है। इन बेबस ल़ड़कियों ने अगर जिस्म का सौदा करने से मना किया तो काम भी नहीं मिलता। अपने और परिवार का पेट भरने के लिए इन अभागी बच्चियों को रोजाना ही अपना शरीर बेचना पड़ता है,

वह भी 200 से 300 रुपये की दिहाड़ी के लिए। नाबालिग लड़कियों का यह नर्क लोक उत्तर प्रदेश के चित्रकूट में है,  जहां खदानों में काम देने के बदले कम उम्र की लड़कियों के साथ हर दिन शारीरिक शोषण हो रहा है।एक निजी चैनल के साथ बातचीत में चित्रकूट के डफई गांव में रहने वाली एक लड़की ने बताया कि खदान पर जाकर काम मांगते हैं तो वहां लोग कहते हैं शरीर दो तभी काम मिलेगा।

मजबूरी के चलते उनकी बात मानकर फिर काम पर लगते हैं। वह बताती है कि ठेकेदार और बिचौलिये उन्हें काम की मजदूरी नहीं देते। मजदूरी पाने के लिए इन बेटियों को करना पड़ता है अपने जिस्म का सौदा। वह भी सिर्फ 200-300 रुपयों के लिए। ठेकेदार कहते हैं ऐसे शरीर दोगी तभी काम पर लगाएंगे।

कोरोना संकट के दौर में चित्रकूट की खदानों में नाबालिग लड़कियों के साथ यौन शोषण का मामला सामने आया है. आज तक की खास रिपोर्ट में यह खुलासा हुआ है कि खदानों में नाबालिग लड़कियों के साथ यौन शोषण किया जाता है.

आज गरीबी में पलती जिंदगी सबसे बड़ा अभिशाप है. दो जून की रोटी के जुगाड़ के लिए हड्डियां गला देने वाली मेहनत करनी पड़ती है, लेकिन बस इससे काम नहीं चलता. यहां रोटी के दो टुकड़े और चंद खनकते सिक्के फेंकने की एवज में दरिंदे करते हैं बेटियों के जिस्म का सौदा.

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ये नरक लोक है दिल्ली से सैकड़ों किलोमीटर दूर बुंदेलखंड के चित्रकूट में. जहां गरीबों की नाबालिग बेटियां खदानों में काम करने के लिए मजबूर हैं, लेकिन ठेकेदार और बिचौलिये उन्हें काम की मजदूरी नहीं देते. मजदूरी पाने के लिए इन बेटियों को करना पड़ता है अपने जिस्म का सौदा.यहां इन बच्चियों की उम्र तो गुड्डे गुड़ियों से खेलने की है.

कॉपी कलम लेकर स्कूल जाने की उम्र है, लेकिन गरीबी और बेबसी ने इनके बचपन में अंगारे भर दिए हैं. परिवार को पालने का जिम्मा इनके कंधों पर आ चुका है. 12-14 साल की बेटियां खदानों में काम करने जाती हैं,

जहां दो सौ तीन सौ रुपये के लिए उनके जिस्म की बोली लगती है.कर्वी की रहने वाली सौम्या (बदला हुआ नाम) कहती है, ‘जाते हैं और काम पता करते हैं तो वो बोलते हैं कि अपना शरीर दो तभी काम पर लगाएंगे, हम मजबूरी में ऐसा करते हैं, फिर भी पैसे नहीं मिलता. मना करते हैं तो बोलते हैं कि काम पर नहीं लगाएंगे. मजबूरन हमें यह सब करना पड़ता है.

परिवार चलाने की जिम्मेदारी

इस गांव की ये मासूम बेटी भी पहाड़ की खदानों में पत्थर उठाने जाती है. जिस उम्र में इसके हाथों में कॉपी कलम होनी चाहिए थी, उन हाथों से इसे पत्थर उठाने पड़ते हैं. परिवार को पालने की जिम्मेदारी इसी मासूम के कंधे पर है.हाड़तोड़ मेहनत करने के बावजूद इस मासूम को अपने मेहनताने के लिए अपने तन का सौदा करना पड़ता है. कुछ बोलती है तो फिर पहाड़ से फेंक देने की धमकी मिलती है.

सौम्या (बदला हुआ नाम, निवासी डफई गांव) कहती है, ‘नाम नहीं बताएंगे, नाम कह देंगे मर जाएंगे. हमको इसलिए नाम नहीं बताता. धमकी भी देते हैं कि काम करना है तो करो जो इस तरह का काम करोगे तभी लगाएंगे नहीं तो चली जाओ.

फिर हम करते हैं….(क्या तीन चार आदमी रहते हैं ?) हां, ऐसा तो होता है पैसे का लालच करा देते हैं ऐसा तो होता है…अगर नहीं जाएंगे तो कहते हैं कि हम तुमको पहाड़ से फेंक देंगे तो हमें जाना पड़ता है.’सोचिए इस मासूम के दिल पर क्या बीत रही होगी और क्या बीत रही होगी उसकी मां के दिल पर, जिसने बेटी के लिए न जाने कितने सपने देखे होंगे,

लेकिन उन सपनों में वहशियों ने अंगारे भर दिए. मां सब कुछ जानते हुए भी अपमान का जहर पीकर रह जाती है.सौम्या की मां (घर के भीतर से) कहती हैं, ‘बोलते हैं कि काम में लगाएंगे जब अपना शरीर दोगे. मजबूरी है पेट तो चलाना है तो कहती है चलो भाई हम काम करेंगे. 300-400 दिहाड़ी है. कभी 200 कभी 150 देते हैं. घर चलाना है परिवार भूखे ना सोए. पापा का इलाज भी कराना है.

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14 साल की बिंदिया की कहानी

महज 14 साल की है बिंदिया (नाम बदला हुआ) जो चित्रकूट के कर्वी में रहती है. पिता नहीं हैं. स्कूल जाने की उम्र में ये बेटी पहाड़ों की खदानों में पत्थर ढोती है. पढ़िए, इस बेटी की जुबानी, यहां के नरकलोक की कहानी.बिंदिया, निवासी कर्वी (चेक कुर्ता में है) कहती है,

‘पहाड़ के पीछे बिस्तर लगा है नीचे, लेकर जाते हैं. वहीं यह सब चलता है. नहीं करते तो मारते हैं गाली देते हैं. चिल्लाते हैं, रोते हैं दर्द होता है, क्या करें सह लेते हैं… दुख तो बहुत होता है कि मर जाए गांव में ना रहे अपन पेट रोटी तो चलाएंगे जैसे चलाएं.’बिंदिया इस समय स्कूल में नहीं पढ़ रही है क्योंकि मास्टरजी ने स्कूल से नाम काट दिया.

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अगर पढ़ती तो शायद सातवीं-आठवीं में होती.जिंदगी पहाड़ों के चक्कर काटने लगी, रही सही कसर लॉकडाउन ने पूरी कर दी. परिवार का पेट पालने के लिए दरिंदों की हवस के नरकलोक में जाने के सिवा कोई चारा नहीं बचा.बिंदिया कहती है, ‘अगर मेकअप करके नहीं जाएं तो बोलता है कि पैसा देते हैं तो तुम उसका क्या करती हो. 100 रुपये में क्या होता है. पायल, हाथ के कंगन बाजार में लेते हैं जाकर. जो नहीं लेते हैं तो कहते हैं कि पैसा खा लेती हो।