शिरडी साईं बाबा पूरी करते हैं भक्तों की मुराद, जानें समाधि और पूरी कहानी के बारे में

 

शिरडी साईं बाबा पूरी करते हैं भक्तों की मुराद, जानें समाधि और पूरी कहानी के बारे में

गुरुवार का दिन साईं बाबा को समर्पित है

गुरुवार (Thursday) का दिन साईं बाबा (Shirdi Sai Baba) को समर्पित है और अपनी मनोकामना की पूर्ति के लिए लोग इस दिन व्रत (Fast) रखते हैं.

 

शिरडी के साईं बाबा (Shirdi Sai Baba) का दिन गुरुवार ( Thursday) को माना जाता है. भक्त इस दिन व्रत रखते हैं और कीर्तन करते हैं. साईं बाबा के जन्म को लेकर दो बातें सामने आती है. कुछ लोग उनका जन्म महाराष्ट्र के पाथरी गाँव में मानते हैं और कई आंध्र प्रदेश के पाथरी गाँव में मानते हैं. हालांकि उनकी समाधि को लेकर कोई संशय नहीं है. 15 अक्टूबर 1918 को उन्होंने शिरडी में समाधि ली थी. इस दिन दशहरा था और भक्तों के लिए यह दिन काफी ख़ास होता है. साईं बाबा को हर धर्म के लोग पूजते हैं क्योंकि उनका विश्वास यही था कि ईश्वर एक है. ‘सबका मालिक एक है’ उनका प्रमुख अनमोल वचन था. जीवन भर उन्होंने किसी धर्म का प्रचार नहीं करते हुए अपने अनमोल वचनों का प्रचार किया और कई चमत्कार दिखाए जिनके बारे में आज भी चर्चा होती है. आज साईं बाबा की जयंती है इस लेख पर उनकी समाधि और इसके कारणों के बारे में बताया गया है.
साईं बाबा की समाधि
साईं बाबा की समाधि शिरडी में है. शिरडी महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले की राहटा तहसिल का एक छोटा सा कस्बा है. यहाँ उनका मंदिर भी है और श्रद्धालु हर साल समाधि पर चादर चढ़ाते हैं. उनकी समाधि सवा दो मीटर लम्बी और एक मीटर चौड़ी है. समाधि मंदिर के अलावा इस स्थान पर द्वारकामाई चावड़ी का मंदिर और साईं भक्त अब्दुल्ला की झोपड़ी भी है. बेहद कम उम्र में वह शिरडी आने के बाद साईं बाबा जीवन पर्यन्त वहीँ रहे.
साईं बाबा की समाधि की कहानीकहते हैं कि विजयादशमी के दिन साईं बाबा ने भविष्यवाणी करते हुए अपनी परम भक्त बैजाबाई के बेटे के निधन की बात कही थी. उसका नाम तात्या था और साईं बाबा को वह मामा कहकर बुलाता था. साईं बाबा ने उसका जीवन बचाने के लिए अपने प्राणों की आहुति देने का फैसला लिया. अंतिम दो दिन उन्होंने भिक्षा नहीं ली और अपने भक्तों को धैर्य बंधाते रहे. जीवन के अंतिम समय में उन्होंने श्री रामविजय कथासार अपने भक्तों से सुना. समाधि से पहले साईं बाबा ने भक्तों को मस्जिद छोड़कर बूटी के पत्थरवाड़े में लेकर जाने का निवेदन किया. साईं बाबा ने अपनी भक्त लक्ष्मीबाई शिंदे को 9 सिक्के दिए और अंतिम सांस ली. बैजाबाई के पुत्र तात्या की तबियत उस समय काफी खराब थी और बचने की उम्मीद भी नहीं थी और उसे बचाने के लिए साईं बाबा ने पहले ही दशहरा के दिन महापर्याण का फैसला लिया था.

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