यह कानून देश के जंगलात पर कब्जा कर और आदिवासियों को बेदखल कर अपना साम्राज्य स्थापित करने वाले पूंजीपतियों के मंसूबों को फेल करने वाला था। इसका लाभ आज भी देशभर के आदिवासियों को मिल रहा है।
2009 में इस कानून को और मजबूती देते हुए तत्कालीन पर्यावरण और वन मंत्रालय ने साफ़ तौर पर कहा कि वन संरक्षण अधिनियम- 1980 के तहत किसी भी जंगल जमीन को अन्य किसी कार्य में इस्तेमाल करने या डायवर्जन करने के किसी भी मसौदे पर तब तक विचार नहीं किया जाएगा जब तक वन अधिकार अधिनियम (Forest Rights Act) के तहत मिले अधिकारों का निपटान नहीं कर लिया जाता है। मतलब साफ़ था कि अगर जंगल जमीन पर किसी भी प्रस्ताव को केंद्र सरकार मंजूरी या एनओसी देती है तो उसके लिए प्रभावित आदिवासी परिवारों की सहमति जरूरी होगी।
अब मोदी सरकार इसमें फेरबदल कर वन संरक्षण अधिनियम 2022 लाने जा रही है
इसको सरल भाषा में समझिए कि सामुदायिक वनाधिकार और सामुदायिक वन संसाधन अधिकार निरर्थक हो जाएंगे। यानी ग्राम सभाएं और उनके अधिकार ख़त्म किए जा रहे हैं।
यानी अभी जंगल में कुछ करने के लिए पहले ग्राम सभा की मंज़ूरी चाहिए होती है। अब सरकार उद्योगपतियों को जंगल पहले ही दे देगी। ग्राम सभा को जो कहना है वह कहती रहे
जिसके अंतर्गत वन मंजूरी मिलने के बाद वन अधिकारों के निपटान की बात है। किसी को संदेह नहीं होना चाहिए कि यह सारी कवायद हमारे जंगलों पर गीदड़ दृष्टि लगाए अडानी अम्बानी जैसे उद्योगपतियों को फायदा पहुंचाने के लिए है
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छत्तीसगढ़ में पहले नंदराज पहाड़ पर फिर सिलगेर पर और फिर हसदेव अरण्य पर देश भर में इस तरह शोर मचा मानों आदिवासी समाज का अस्तित्व इन्हीं मसलों पर टिका है। कुछ हद तक मैं सहमत हो भी सकता हूं। क्योंकि इसी चिंता से छत्तीगढ़ की सरकार ने भी नंदीराज परियोजना को रोक दिया
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लेकिन आश्चर्य है कि आदिवासियों को लेकर चिंतित एक्टिविस्ट, पत्रकार, फेसबुक ट्वीटर के इन्फ़्लुएन्सर और तमाम एनजीओ मोदी सरकार के इस नए निर्णय पर पूरी तरह से खामोश हैं। यह खामोशी आश्चर्यजनक भी है और बेशर्मी भरी भी। इस खामोशी का मतलब मोदी सरकार और उनके उद्योगपति मित्रों को सीधे वॉक ओवर देना और आदिवासी समाज के साथ धोखाधड़ी है। जवाब देना तो बनता है
मैं मानने के लिए तैयार नहीं हूं कि वे अभी इस मसले को समझ नहीं पाए हैं। हमें आदिवासियों के कथित हमदर्दों को समझना पड़ेगा।